लोकतंत्र का कालापक्ष

लोकतंत्र का कालापक्ष


*मेढकों से विकास की आशा?*
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मेढकों की सुषुप्तावस्था काफी समय तक रहती है,ये तब जगते हैं जब वर्षा के जल के बूंदों का स्पर्ष पाते है़। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर सरकते देर‌ नहीं लगती ,जहां जल वहां मेढक ‌ । यही हालत हमारे नेताओ़ की होचुकी है ‌। सत्ता का स्पर्श पाते ही ये जग जाते हैं । सत्ता गई तो ये सुषुप्तावस्था मे चले जाते है़ । इन्हें किसी पार्टी से कौई लेंना देना नही़ । इन्हें सत्ता के साथ की जबर्दस्त चाहत हैं ‌। कोई सिद्धांत नहीं ,इनकी कहीं किसी दल के प्रति कोई आस्था नहीं । लोकतंत्र का यह तमाशा देखता आरहा हू़ं ,सभी देख रहे हैं । इनसे विकास की आशा करना सिवा मूर्खता के कुछ नहीं । इन्हें जब जब किसी की चासनी मे लिपटी सत्ता की ललक मिली ये तुरंत सरके ‌। ऐसे मे इन्हें एक जगह से दूसरे जगह लेजाकर घेरेबंदी कर रखाना पड़ता है,गोया ये इंसान न होकर कोई सामान हों । फिर मोबाईल और संपर्क के साधन हटाकर इन्हे़ खिलाया पिलाया और ऐश आराम के सारे साधन मुहैया कराये जाते है और सत्ता सुख पाने के लिए मंत्रिमंडल मे‌ शामिल करने का लोभ तक दिया जाता है ,ताकि शक्ति प्रदर्शन के समय तक ये सरके़ नहीं । इधर दूसरा पक्ष उनके सामने नोटों की थैलियां ओर सत्ता मे शामिल करने के लिए पद का लालच देता रहता है‌ ,बोलियां ऊंची होती जाती हैं ।‌ ताकि उस गोल से सरक कर मेरे पक्ष में आजायं । हैरत की बात है कि  इस आकर्षण और उच्चाटन की क्रिया से कोई पार्टी विरत नहीं । सभी को यह तांत्रिक क्रिया करनी पड़ती है। इसी के बल पर ये महात्मा गांधी का मुकाबला करने चले हैं । स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने वाले नेता अधिकांश देश भक्त थे ।आजादी के बाद भी  कुछ काल तक अधिकांश नेता सिद्धांत पर चलते थे ‌। 
   पर मिथ्याचार मे लिप्त होने से दिनों दिन इनका सिद्धांत डांवाडोल होता गया ‌। तुर्बत यह कि ये शहीदों से भी अपने को बढ़ा चढ़ा कर आंकते हैं ‌। लच्छेदार भाषणों मे झूठ को सच का वर्क लगा कर जनता के सामने अपनी ईमानदार कोशिशों का ढ़िंढोरा पीटते है़ और तनिक भी शर्म महसूस नहीं करते ‌। भोले भाले कार्यकर्ता इनके लिए जितनी निष्ठा से नारे लगाते और मरने मारने पर उतारु होजाते हैं,उनका मोह भंग तब होता है, जब सत्ता मे पद पाते ही वे ही नेता इन्हें देखना भी पसंद नहीं करते, वे सिर्फ माला पहनाते समय भी इन पर निगाह डालते है फिर पहचानना भी  नहीं चाहते । उनकी निष्ठा और ईमानदारी का कोई तवज्जो न देकर ,जब ऊपर ही ऊपर अन्य पार्टी से पैसे के बल पर सरक आए व्यक्ति को टिकट दे दिया जाता है  तो उन्हें एक झटका लगता हे।अथवा पैसे और जबर्दस्त सिफारिश के बल पर  टिकट पाए व्यक्ति के प्रचार के‌ लिए उन्हें निष्ठावान बनने  का सबक दिया जाता है। तब उसकी आस्था दरकती है और वह किंकर्तव्य विमूढ़ होता है।
        यही स्थिति मोजूदा राजनीति का कड़वा सच बन चुका है, जिसमें वोटर ही नहीं नेता भी लालच मे किसी भी तरफ लरक जाते हैं और अपढ़ गंवार से भी कम अपनी औकात जाहिर कर देते है़ । जो ऐसे मेढकों को तराजू पर तौल कर अपने आपको मजबूत समझे, उसे क्या कहा जाय? फिलहाल यह लोकतंत्र का काला पक्ष है ,जिससे ईमानदारी से विचार करना पड़ेगा अन्यथा आने वाला कल इन्हें माफ नही़ करेगा । आजादी की लड़ाई में भारत मां को गुलामी की बेड़ियों से छुड़ाने के लिए शहीद हुए  स्वातंत्र्य वीरों की आत्माए़ं इन्हें कोसेंगी । क्या यही दिन देखने के लिए उन्होंने कुर्बानी दी थी?


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